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संतों की दया : माधव से श्रीमाधवदेव !

                             भक्त भक्ति भगवन्त गुरू चतुर नाम  वपु एक  (भक्तमाल)

शुद्ध भक्त से ही भक्ति की प्राप्ति  होती   हैं  ;भगवद -कृपा से ही साधु संग मिलता हैं ।महा पातकी भी साधु कृपा से परम वैष्णव बन सकते हैं , दैत्य पुत्र प्रह्लाद को ऋषिवर नारद से ' स्मरण' भक्ति प्राप्त हुआ था ।जीवन मुक़्त महात्माओ में भी भगवद भक्ति में लीन रहने वाला भगत दुर्लभ हैं ।अभी , वैसे ही एक वैष्णव आख्यान को अति साधारण शब्दो में लिखने की प्रयास  करूंगा ।

यह बात हैं पन्ध्रवी शताब्दी की, जब भक्ति संतो ने हरिनाम प्रचार से मानव कल्याण का अनोखी पदखेस्प ग्रहण किया था ; उस काल में उत्तर-पूर्वी भारत में तंत्र शास्त्र का ग्लानि हुआ करता था ;पशुवलि के साथ साथ ही नरवलि तक धर्म का ब्याभिचार हुआ करता था।  उसी शतक के  अंतिम भाग और सोलहबी शतक  में कामरुप ओर आसाम राज्य (तत्कालीन अहोम)मैं  महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव ,माधवदेव और दामोदरदेव ने भागवत धर्म का प्रतिष्ठा कर भक्ति से जनकल्याण प्रारम्भ किया था।श्रीशंकरदेव के प्रिय शिष्य श्री माधवदेव कैसे वैष्णव बने, उसी कथा को ले इस लेख को प्रस्तुत किया जा रहा हैं ।

  माधवदेव का जन्म हुआ था कायस्थ वंश में ,उनके वहाँ तन्त्र के मार्ग से  शक्तिपूजा हुआ करता था ।वैह शाक्त शास्त्रों में निपुण और प्रवृति मार्ग के अनुगायी हुआ करते थे  । अति कम उम्र में ही शास्त्र में निपुणता अर्जन कर अपना कर्म करते हुए वेह   फलभोग के कामना रखा करते थे ।एकबार उनके माता जी कोई कठिन रोग की शिकार हो गयी ;उनके जीवन के अस्थिरता देख  माधव ने देवी चण्डिका को छाग शिशु की बलि दे ार पूजा करने का संकल्प किया ।कुछ दिनों बाद उनके बीमार माता जी सवस्थ हो गयी , और इस कारण माधव ने अपने बहनोई को  दो शुक्ल अज लाने के लिए आदेश  दिया । परंतु, बहनोई रामदास थे शंकरदेव के भक्ति में शरणागत ,  पशुबलि को नकारते हुए रामदास ने पूजा के लिए पशु लाने को टालते गए ; जब पूजा के  समय निकट आ गया तोह उन्होंने साफ साफ पशुबलि के खिलाफ बोल डाला , माधव  बहत ही कोपित हो गए -  कृष्ण भक्ति और शंकरदेव को  बुरा भला बोलने लगे । हसमुख हो रामदास बोलै की माधवका  वह अहंकार शंकरदेव ही खंडन करेँगे, माधव को और ज्यादा क्रोध आया ।  

 दूसरे दिन,रामदास और माधव दोनों ही शंकरदेव के स्थान पोहच गए; कारण था शंकरदेव को तर्क में परास्त कर वैष्णव मत का खंडन करना ! लेकिन शंकरदेव के दर्शन कर माधव के मन में भक्ति का प्रादुर्भाव हुआ ! शंकरदेव भक्ति के तेज़ से प्रकाशित हो रहे थे , बाद में उनके दिव्य रूप के बारे में माधव ने  खुद लिखा - ''दर्शित सुन्दर गौर कलेवर ,जइसना सुर प्रकाश '' । माधव ने शंकरदेव को प्रणाम कर उनके साथ तर्क करने केलिए अनुमति मांगा ;  इस अनुमति में प्रकृतार्थ में संसारी को उद्धार का ही रहस्य था ! शंकर और माधव में शास्तार्थ आरम्भ हुआ ! माधव ने अपने प्रवर्ति मार्ग के मत प्रस्तुत कर पशुबलि को समर्थन किया ,लेकिन उस सिद्धांत को श्रीशंकर ने पलभर मे ही  नृवृत्ति के प्रमाण से खंडन कर डाला , इस तरह तर्क में आगे माधव के प्रकृति के गुणों के बहु देवो को शंकरदेव ने श्रीमद भागवत के प्रकृति पर भगवन वासुदेव कृष्ण के सेवा मार्ग से तुष्टि का कारण दिखाया - यथा तरुरमुलेन निषेचित  ट्रिपटन्ती तट स्कंध भुजोपा शाखाम , जैसे बृक्ष के मूल मे जल चढ़ाने से पत्र ,शाखा आदि सभी को जल मिलता हैं या फिर जैसे अन्न ग्रहण करने से मनुष्य के प्राण तुस्ट हो कर सभी इन्द्रिय को भी तुस्ट करते हैं,वैसे ही श्रीकृष्ण को अर्पण किया हुआ सेवा से ही देव देवी,ऋषि,पितृगन सभी तुष्ट हो जाते हैं !  

    माधव ने भक्ति सार को पहचान लिया ,सद्गुरु हरिभक्त की कृपा से कृष्ण सेवा रस को जानके उन्होंने शंकरदेव को अपने गुरु स्वीकार कर लिया । आगे चल कर ,माधव ने गुरुभक्ति का भी एक उदाहरण प्रतिष्ठा किया , माधव अपने भक्ति और जीवन भर के ब्रह्मचर्य के  कारण बन गए श्री माधवदेव! बहुमुखी प्रतिभा के अधिकारी माधवदेव  ने  काव्य,गीत,नाट्य आदि के माध्यम से कृष्ण भक्ति प्रचार किया । उन्होंने सत्र अनुष्ठान का भी स्थापना किया था ,उनके काव्यों मे श्री कृष्ण के दास्य और बात्सल्य भक्ति का भाव हैं,उनके लिखे हुए  कुछ जनमान्य भक्ति  ग्रन्थ हैं - नामघोषा, जन्म रहष्य,रत्नवलि(अनुवाद),नाम-मालिका(अनुवाद),रामायण (आदि-काण्ड अनुवाद ),राजसूर्य काव्य । 

(महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव)


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